एक तितली
उड़ी थी अपने बागानों से
शहर की ओर
और खो गई
चमचमाती रोशनी
और रोशनी के चारों ओर
मंडराते पतंगों के बीच ।
फूल-पत्तों के रंग नहीं थे,
तितली के पीछे भागते
बच्चे नहीं थे ।
हाँ, धूल और धुँए से
मलिन होते उसके
रंग-बिरंगे पंख थे
किसी बहुमंजिली इमारत की
मुंडेर पर बैठे
एकाकीपन का साथ था,
और एक सावाल
कि आखिर किसकी,
किस चीज की
तलाश में आई थी वह
शहर तक
मीलों की उड़ान भरकर
रूक-रूक कर,
थक-हार कर,
जाने क्या-क्या
दाँव पर लागा कर... ।
क्या उसे अपने
बागानों का रास्ता
फिर से कोई
बता सकता था ?
या फिर
क्या वह
ढ़ूँढ़ सकती थी,
बना सकती थी
कोई नया उपवन
फूल-पत्तियों से भरा,
रंगों से भरा,
खिलखिलाते बच्चों से भरा,
एक अलग कोना
इन बहुमंजिली इमारतों के बीच ?
- सीमा कुमार
६ जून, २००७
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