29.12.06

मन का मीत

शब्द अधूरे बन गए गीत
मिला जो मुझको मन का मीत
आँखों में खुशियाँ लहराईं
वादी में लहराया प्रीत |

- सीमा कुमार
१५ दिसम्बर,२००६

29.11.06

'कृत्या' पर मेरी हिन्दी कविताएँ

कृत्या के दिसम्बर अंक में मेरी कुछ हिन्दी कविताएँ 'समकालीन कविता' भाग में प्रकाशित हुई हैं । बाकी की प्रकाशित कविताएँ यहाँ हैं । यह कविताएँ मेरी नई एवँ पिछ्ले कुछ सालों की कविताओं में से चुनी गई हैं ।
कृत्या के  'समकालीन कविताभाग में प्रकाशित  मेरी कुछ हिन्दी कविताएँ 

2.11.06

'फार्मूला 69': आई. आई. टी.- दिल्ली में बनी सिनेमा

आई. आई. टी. - दिल्ली में बनी सिनेमा 'फार्मूला 69', जिसमें मेरे भाई आशीष कुमार लाल ने भी काम किया है, के बारे में और अधिक पढे यहाँ

26.10.06

खुशियों की दीवाली

एक-एक दीप जला कर जगमाती है दीवाली।
खुशी का लम्हा-लम्हा जोड़कर आती है खुशहाली।

खुशियों के दीपों से हर दिन जगमगाए दीवाली।

- सीमा कुमार
२५ अक्टूबर, २००६

4.9.06

दो पल

एक पल
जो मेरा है,
एक पल
जो तुम्हारा है,
आओ मिल कर
बाँट लें ।
फिर हम दोनों के
दो – दो पल हो जाएँगे
साथ – साथ ।


– सीमा
11 जून, 1998

24.8.06

बादल

बादल का एक टुकड़ा आसमान में आकर
मेरी आँखों में अनंत आशाएँ दे गया

तो क्या हुआ जो बादल नहीं, बस आँखें बरसीं

- सीमा कुमार
२४ अगस्त '०६

11.8.06

एक और त्रिवेणी

विषय : गुरूर

एहसास तक नहीं था मुझे अपने होने का
नाज़ तुम्हारे साथ होने का जरूर था

तुम मेरे हुए, अपने आप पर गुरूर आ गया


सीमा
१२ अगस्त '०६

8.8.06

त्रिवेणी

Orkut गुलज़ार ग्रुप पर लिखी 'त्रिवेणी'

विषय : नींद

नींद से बोझिल आँखें
आँखों में एक ख्वाब

ख्वाबों का है सिलसिला, सच भी ख्वाब सा लगता है

- सीमा कुमार
२३ मई २००६
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विषय (आखिरी पंक्ति के लिये) : धुआँ मेरी आँखों में आग का नहीं

आँच बहुत है चूल्हे में रोटियों के लिए मगर
लाल आँखें देख आग का प्रतिबिंब मत समझना

धुआँ मेरी आँखों में आग का नहीं !

- सीमा कुमार
८ अगस्त २००६

25.7.06

मेरे अंदर के मानव

मैं एक मानव हूँ
पर मेरे अंदर
कई और मानव हैं
– अनगिनत, अनदेखे मानव
जो छिपे रहते हैं मेरे अंदर ।
क्रोध, विनय, विचार,
संवेदना, बुद्धि, आत्म-सम्मान,
जैसे कितने ही नाम हैं उनके ।
समय-समय पर
अलग-अलग मानव
मेरे इस बाहरी मानव पर
हावी होते रहते हैं ।
कभी किसी एक की अह्मियत
बढ़ जाती है
तो बाकी सभी की अह्मियत
नगण्य हो जाती है ।
इसी प्रकार सभी की अह्मियत
सभी का प्रभाव
बारी-बारी से
घटता-बढ़ता रहता है ।
ये सभी भीतरी मानव
मिलकर बनाते हैं
मेरे बाहरी मानव को; मुझको …
पर दुनिया केवल मुझे देखती है-
मेरे बाहरी मानव को …
और मेरे अंदर के मानव
रह जाते हैं छिपे मेरे अंदर ।
इन सब पर
मेरे बाहरी मानव का रूप
र्निभर करता है;
ये सभी नींव की ईंट बने रह जाते हैं
जिन पर मेरे बाहरी मानव की
मजबूती तो र्निभर करती है
पर वो ख़ुद
दुनिया की आँखों से
रह जाते हैं अनदेखे …
अनजाने ... ।


–सीमा
2 जून, 1993

30.6.06

सोने मत देना

सपनीली आँखों को
सोने मत देना ।
एहसासों की नदियों को
कल्पना की नहरों को
इस दुनियाँ के सागर में
जीवन के झमेलों में
रंग - बिरंगे मेलों में
संघर्ष के खेलों में
खोने मत देना ।
सपनीली आँखों को
सोने मत देना ।


-सीमा
९ जनवरी, १९९७

18.5.06

दर्द

ज़िन्दगी एक दर्द है ।
कभी न खत्म होने वाला,
अनंत तक
चलते चले जाने वाला
दर्द ।


हर खुशी
एक दर्द है -
दो पल में
खुशी खत्म हो जाने का दर्द ।
मिलन भी
एक दर्द है -
मिलकर बिछड़ जाने का दर्द ।

प्रेम भी एक दर्द है -
अपने प्रिय में
लीन न हो पाने का दर्द,
एक आत्मा होकर भी
दो अलग अस्तित्व
होने का दर्द,
अपने प्रिय के दर्द को
न ले पाने का दर्द ।

हर साँस
एक दर्द है -
हर साँस के साथ
ज़न्दगी के हर दर्द को
जीते रहने का दर्द ।

ज़िन्दगी एक प्यास है -
प्यास स्नेह की,
अपनापन की,
खुशी की,
अपनों को खुशी देने की,
दर्द के समापन की,
हर प्यास,
हर दर्द से दूर
अनंत में
कहीं विलीन हो जाने की ।

सीमा
२ नवम्बर, २०००

2.5.06

भँवर

रिश्तों का भँवर
और मैं
कागज़ की एक
छोटी सी नाव ।

सीमा
१२ सितम्बर, १९९९

24.4.06

देखना एक दिन

जब मैं कहती हूँ
देखना, एक दिन ऐसा होगा;
देखना, एक दिन वैसा होगा
तो लोग कहते हैं
कब होगा ?
कैसे होगा ?


मैं कहती हूँ
देखना, एक दिन
सागर मेरी बाँहों में होगा,
फूल मेरी राहों में,
और शिलाखंड मेरी राह के
पुष्प बन जाएँगे ।
देखना, एक दिन
मैं सूरज की लपटों को
छू लूँगी,
अंतरिक्ष की गहराइयों में जाकर
रहस्यों को खोज लाऊँगी ।
देखना, एक दिन
मेरे सारे सपने सच होंगे,
सभी मेरे अपने होंगे ;
न कोई वेदना होगी,
न निराशा,
न पछतावा,
न संर्घष,
न पराजय ।

जब मैं कहती हूँ
देखना, एक दिन ऐसा होगा ;
देखना, एक दिन वैसा होगा
तो लोग मुझे
अविश्वास से देखते हैं,
मुझे विक्षिप्त समझते हैं ।
चाँद को पाने के लिए
मचलने वाला बच्चा
क्या अपनी जिद से
चाँद को पा लेता है ?
परंतु
आशा, विश्वास
और उत्साह से भरी मैं
आँखों में हजारों सपने लिए
अब भी कहती हूँ
देखना, एक दिन ऐसा होगा ;
देखना, एक दिन वैसा होगा,
देखना, एक दिन ... ।

–सीमा
9 जनवरी, 1997

13.4.06

जीवन तो बस जीवन है

जीवन क्या है ?
अमृत का प्याला नहीं
काँटों की माला नहीं,
कष्टों की ज्वाला नहीं,
उल्लास की शाला नहीं,
जीवन तो बस जीवन है ।


आँसू की कुछ बूँदें,
हँसी की कुछ फुहारें,
गीतों का संग्रह,
कभी धीमे, तो कभी तेज
बाजीगरों का करतब,
जीवन तो बस जीवन है ।


सीमा
५ दिसम्बर, १९९६
ब. व.

30.3.06

ठहर जाना

ठहरे हुए लम्हों में
अरमानों का ठहर जाना;
तनहाई में, बेबसी में
आँसुओं का ठहर जाना;
कैसा इत्तफाक है
ग़मगीन लम्हों में
दिल के किसी कोनें में ही
गमों का ठहर जाना ।


सीमा
१४ अप्रैल, १९९६

24.3.06

सन्नाटा

सन्नाटे की बात पर कुछ पंक्तियाँ और भी :-

सन्नाटे को
कर लूँ बंद
मैं मुठ्ठी में
बार - बार क्यों
ऐसी ख्वाहिश होती है ?

अन्धकार पर
कर लूँ कब्जा
मन की क्यों
ऐसी कोशिश होती है ?

- सीमा
१७/०२/०३, दि.

22.3.06

सन्नाटे की आवाज

सन्नाटे की भी
अपनी एक आवाज होती है
जो बिना बोले भी
बहुत कुछ बोलती है,
पूछती है,
फुसफुसाती है,
गुनगुनाती है ।


अपने दोनों कानों को
दोनों हाथों से
बंद कर लो,
कुछ मत बोलो
और सुनो
सन्नाटे की सरसराहाट,
सन्नाटे की गूँज,
सन्नाटे की चीख ।
क्या अब भी
विश्वास नहीं होता
कि सन्नाटे की भी
अपनी एक आवाज होती है ?

- सीमा
१४ मई, १९९७
चा.

7.3.06

होली की शाम

होली के रंगों की शाम,
उमंगों की शाम,
तरंगों की शाम /

याद आ रही है मुझे
अपने गाँव की
होली की शाम /
'होरी' गाती
गावँ के मर्दों की
टोली की शाम /
हर एक चेहरे पर
गुलाल से सजी
रंगोली की शाम /
गुलाल से गुलाबी करने
घर आती
हर सखी-सहेली की शाम /
रंगे हुए चेहेरे को
घूँघट के पीछे छुपाती
दुल्हन नई-नवेली की शाम /

बहारों की शाम,
फुहारों की शाम,
मस्ती की शाम,
सुस्ती की शाम /
याद आ रही है मुझे
अपने गाँव की
होली की शाम /

- सीमा
२३ मार्च, १९९७, ब.व.
(होलिका-दहन)

1.3.06

रिश्ता

तुम्हारे और मेरे बीच
आँसुओं का रिश्ता है,
दर्द की एक डोर है
जो बाँधे हुए है
हम दोनों को /
दर्द से सभी डरते हैं,
सभी दूर भागते हैं
फिर भी
जाने क्यों
यही दर्द,
यही पीडा
हम दोनों को
जोडे हुए है
एक दूसरे से,
इस समस्त सृष्टी से /

आपस में
छोटे-छोटे दर्द बाँटकर
यह डोर और मजबूत हो जाती है
पर
दर्द से सभी डरते हैं
शायद तुम भी
और मैं भी
तभी आपस में
दर्द का बाँटना
कम होता गया
और हमारे बीच की डोर
हमारे बीच के
फासले को नापती हुई
ज्यों की त्यों
तनी हुई है /

-सीमा
१९ दिसम्बर, १९९६
ब.व.

28.2.06

विमान

बनाया होगा
इंसान ने
चाँद पर
उतरने के लिए
कोई विमान
पर
क्या कभी
किसी इंसान ने
बनाया है
कोई ऐसा विमान
जो
इंसान के ही
मन की
गहराई में
उतर सके ?

–सीमा
28 अप्रैल, 1995
स.

26.2.06

कैसे लिखूँ

कैसे लिखूँ कुछ
आज शब्द मानो
पंख लगा
उड़ जाते हैं ।
भागूँ जब मैं
पीछे उनके
किसी अनजान दिशा
मुड़ जाते हैं ।

- सीमा
28 नवम्बर, 1994

15.2.06

ज़िन्दगी के रंग

ज़िन्दगी कभी-कभी
कहीं खत्म सी हो जाती है,
कहीं थम सी जाती है
और फिर कहीं
शुरू हो जाती है /

कहीं उमड़ जाती है
कहीं मचल जाती है
कहीं रेत के बवन्डरों सी
उड़ती चली जाती है /

कहीं हरे-हरे पत्तों पर पडी़
बरखा की बूँदों सी
झिलमिलाती जाती है /
कहीं ठंढी हवाओं सी
बस छू कर चली जाती है /

यूँ ही बदलती रूप रंग
ज़िन्दगी चली जाती है /
थाम ले जिस पल को
वही बस अपना है ;
बाकी की ज़िन्दगी रेत-सी
यूँ ही फिसल जाती है /

- सीमा
१४ अप्रैल, २००४.
सि.

10.2.06

आदमी

अपने आप को बहुत कम
जनता है आदमी /
जो है वह भी अकसर
नहीं मानता है आदमी /

- सीमा
२४ जून, १९९५
ब.व.

6.2.06

ख्वाब

लोग
ख्वाबों से हक़ीकत
बुनने की कोशिश करते हैं /

मैं अकसर कोशिश करती हूँ
हक़ीकत में
ख्वाबों को ढूँढ सकूँ /

- सीमा
६ फरवरी, २००६

31.1.06

चाहत कम नही होती

कहानियाँ पुरानी हो चली
पर यादें पुरानी नहीं होतीं /

दीवारों पर
नए रंग चढ गए हैं,
इमारतें पुरानी हो चली हैं,
पीढ़ियाँ बदल गई हैं
पर इंसानों की
कश्मकश कम नहीं होती /

रंग फीके पड़ते जाते हैं
पर रंगों को
तरो-ताज़ा रखने की
चाहत कम नही होती /

- सीमा कुमार
३१ जनवरी, २००६

और भी हैं रास्ते

आज
शब्दों-छन्दों की दुनिया ने
फिर से मुझे पुकारा है /
जिन्दगी जो बाकी है
तो आँखों में सपने
अभी और भी हैं /
फिर से राहें कहती हैं
आओ,
कदम बढाओ,
पाने को मंजिलें
अभी और भी हैं /
मंजिलें जो हासिल हैं
वहाँ से शुरू होते
नई मंजिलों की ओर
रास्ते अभी और भी हैं /

- सीमा कुमार
२४ जनवरी, २००६

प्रकृति और पंक्षियों को अर्पित मेरी कृति

प्रकृति और पंक्षियों को अर्पित - वस्त्रों ( टी-शर्ट्स ) के लिए मेरी कृति : वीडियो - प्रकृति और पंक्षियों से प्रेरित डिज़ाइन:  और पढ़ें ... फ...