होली के रंगों की शाम,
उमंगों की शाम,
तरंगों की शाम /
याद आ रही है मुझे
अपने गाँव की
होली की शाम /
'होरी' गाती
गावँ के मर्दों की
टोली की शाम /
हर एक चेहरे पर
गुलाल से सजी
रंगोली की शाम /
गुलाल से गुलाबी करने
घर आती
हर सखी-सहेली की शाम /
रंगे हुए चेहेरे को
घूँघट के पीछे छुपाती
दुल्हन नई-नवेली की शाम /
बहारों की शाम,
फुहारों की शाम,
मस्ती की शाम,
सुस्ती की शाम /
याद आ रही है मुझे
अपने गाँव की
होली की शाम /
- सीमा
२३ मार्च, १९९७, ब.व.
(होलिका-दहन)
7.3.06
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2 टिप्पणियां:
वाकई,
जैसे जैसे होली पास आ रही है...
मुझे भी गाँव की बहुत याद आ रही है...
आपकी कविता ऎसा अहसास करा रही है...
जैसे वो मेरे गालों पे रंग लगा रही है...
बहुत सुंदर..बधाई.
समीर लाल
समीर जी,
बहुत धन्यवाद |
गाँव की होली,
गाँव की मस्ती
और कहाँ मिल पाएगी |
शहरों में अब
सभ्य हुए हम
मिट्टी कहाँ मिल पाएगी |
कभी कभी अपने गाँव में होली मनाने का मौका मिला था इन श्बदों में उन्हीं की याद है | और वास्तव में हम तथाकथित आधुनिक एवँ सभ्य लोगों की होली में वो बात एवँ वो आनंद कहाँ जो गाँव की होली में मुझे मिली थी |
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