जब मैं कहती हूँ
देखना, एक दिन ऐसा होगा;
देखना, एक दिन वैसा होगा
तो लोग कहते हैं
कब होगा ?
कैसे होगा ?
मैं कहती हूँ
देखना, एक दिन
सागर मेरी बाँहों में होगा,
फूल मेरी राहों में,
और शिलाखंड मेरी राह के
पुष्प बन जाएँगे ।
देखना, एक दिन
मैं सूरज की लपटों को
छू लूँगी,
अंतरिक्ष की गहराइयों में जाकर
रहस्यों को खोज लाऊँगी ।
देखना, एक दिन
मेरे सारे सपने सच होंगे,
सभी मेरे अपने होंगे ;
न कोई वेदना होगी,
न निराशा,
न पछतावा,
न संर्घष,
न पराजय ।
जब मैं कहती हूँ
देखना, एक दिन ऐसा होगा ;
देखना, एक दिन वैसा होगा
तो लोग मुझे
अविश्वास से देखते हैं,
मुझे विक्षिप्त समझते हैं ।
चाँद को पाने के लिए
मचलने वाला बच्चा
क्या अपनी जिद से
चाँद को पा लेता है ?
परंतु
आशा, विश्वास
और उत्साह से भरी मैं
आँखों में हजारों सपने लिए
अब भी कहती हूँ
देखना, एक दिन ऐसा होगा ;
देखना, एक दिन वैसा होगा,
देखना, एक दिन ... ।
–सीमा
9 जनवरी, 1997
24.4.06
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2 टिप्पणियां:
बढिया है, सीमा जी
..समीर लाल
आशा, विश्वास
और उत्साह से भरी मैं
आँखों में हजारों सपने लिए
अब भी कहती हूँ
देखना, एक दिन ऐसा होगा ;
देखना, एक दिन वैसा होगा,
देखना, एक दिन ... ।
बहुत सुंदर रचना है सीमा जी। सच है कि ख्वाब देखने से हीं इंसान अपनी मंजिलों को जानता है।
बधाई स्वीकारें।
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