मैं एक मानव हूँ
पर मेरे अंदर
कई और मानव हैं
– अनगिनत, अनदेखे मानव
जो छिपे रहते हैं मेरे अंदर ।
क्रोध, विनय, विचार,
संवेदना, बुद्धि, आत्म-सम्मान,
जैसे कितने ही नाम हैं उनके ।
समय-समय पर
अलग-अलग मानव
मेरे इस बाहरी मानव पर
हावी होते रहते हैं ।
कभी किसी एक की अह्मियत
बढ़ जाती है
तो बाकी सभी की अह्मियत
नगण्य हो जाती है ।
इसी प्रकार सभी की अह्मियत
सभी का प्रभाव
बारी-बारी से
घटता-बढ़ता रहता है ।
ये सभी भीतरी मानव
मिलकर बनाते हैं
मेरे बाहरी मानव को; मुझको …
पर दुनिया केवल मुझे देखती है-
मेरे बाहरी मानव को …
और मेरे अंदर के मानव
रह जाते हैं छिपे मेरे अंदर ।
इन सब पर
मेरे बाहरी मानव का रूप
र्निभर करता है;
ये सभी नींव की ईंट बने रह जाते हैं
जिन पर मेरे बाहरी मानव की
मजबूती तो र्निभर करती है
पर वो ख़ुद
दुनिया की आँखों से
रह जाते हैं अनदेखे …
अनजाने ... ।
–सीमा
2 जून, 1993
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2 टिप्पणियां:
सीमाजी,
"मेरे अंदर के मानव" रचना बहुत सुंदर है| हर इन्सान अपना प्रतिबिंब आपकी इस सरल रचना में देख सकता है| आपका हार्दिक अभिनंदन और धन्यवाद|
आपकी पहचान मुझे राज की ऑरकुट प्रोफाईल से हासिल हुई|
प्रणाम,
अभिजित
सीमाजी,
"मेरे अंदर के मानव" रचना बहुत सुंदर है| हर इन्सान अपना प्रतिबिंब आपकी इस सरल रचना में देख सकता है| आपका हार्दिक अभिनंदन और धन्यवाद|
आपकी पहचान मुझे राज की ऑरकुट प्रोफाईल से हासिल हुई|
प्रणाम,
अभिजित
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