विषय : गुरूर
एहसास तक नहीं था मुझे अपने होने का
नाज़ तुम्हारे साथ होने का जरूर था
तुम मेरे हुए, अपने आप पर गुरूर आ गया
सीमा
१२ अगस्त '०६
11.8.06
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
प्रकृति और पंक्षियों को अर्पित मेरी कृति
प्रकृति और पंक्षियों को अर्पित - वस्त्रों ( टी-शर्ट्स ) के लिए मेरी कृति : वीडियो - प्रकृति और पंक्षियों से प्रेरित डिज़ाइन: और पढ़ें ... फ...
-
कविता संग्रह ‘पराग और पंखुड़ियाँ’ अब फ्लिपकार्ट और इन्फीबीम पर उपलब्ध मेरी कविता संग्रह ‘पराग और पंखुड़ियाँ’ अब फ्लिपक...
-
कविता - शब्दों का ताना-बाना, शब्दों का जाल । कल्पना के हथकरघे पर अक्षर - अक्षर से शब्दों के सूत कात, जुलाहा बन शब्दों के सूत से वाक्यों का क...
-
एक तितली उड़ी थी अपने बागानों से शहर की ओर और खो गई चमचमाती रोशनी और रोशनी के चारों ओर मंडराते पतंगों के बीच । फूल-पत्तों के रंग नहीं थे, तित...
2 टिप्पणियां:
अच्छा लिखा है, सीमा जी. बहुत बढियां.और त्रिवेणियां पढवायें...
समीर लाल
बहुत बढिया ।
अपनी एक रुबाई याद आ रही है :
तुम को देखा तो चेहरे पे नूर आ गया
हौले हौले ज़रा सा सुरूर आ गया
तुम जो बाँहों में आई लजाते हुए
हम को खुद पे ज़रा साअ गुरूर आ गया ।
एक टिप्पणी भेजें