6.1.07

जाड़े की धूप


जाड़े की धूप
जैसे किसी प्यासे को
रेगिस्तान में
मीठा पानी मिल गया हो ।

सर्द रातों के बाद
ऐसी खिली
जाड़े की धूप
जैसे सूर्यमुखी ने
धीरे से
अपनी सुंदर,
बड़ी, पीली पंखुड़ियाँ
फैला ली हो ।

भागती - दौड़ती जिन्दगी
और वातानुकूलित कमरों के बाहर
जाड़े की धूप में बैठ
ऐसा लगा जैसे
बरसों से चैन की नींद
सोए नहीं;
पुकारने लगी
सुहानी धूप
अपनी गोद में
सुलाने को ।

जाड़े की धूप
जैसे
ममता का आँचल ।


- सीमा कुमार
६ जनवरी, २००७,
गुड़गाँव ।

5 टिप्‍पणियां:

प्रेमलता पांडे ने कहा…

सुंदर कृति!!!
जाड़े की धूप में बैठकर वैसा ही आराम मिलता है जैसा तेज गर्मी में नदी के जल में बैठने पर मिलता है

बेनामी ने कहा…

वाह एकदम सही अहसास व्यक्त किए आपने धूप के बारे में।

Dr Prabhat Tandon ने कहा…

सच ही तो है , जाडे की धूप का मजा ही कुछ अलग है, बहुत सुदंर प्रस्तुति ।

बेनामी ने कहा…

सर्द रातों के बाद
ऐसी खिली
जाड़े की धूप
जैसे सूर्यमुखी ने
धीरे से
अपनी सुंदर,
बड़ी, पीली पंखुड़ियाँ
फैला ली हो।


अति सुन्दर चित्रण सीमा कुमार जी,
जाड़े की धूप के लिए लिखी गई आपकी ये पंक्तियाँ उतनी ही सुन्दर और सुहावनी है, जितनी जाड़े में धूप।

आपका काव्य लेखन बहुत अच्छा लगा और आप द्वारा अपने ब्लॉग पर किया गया अपनी कला का प्रदर्शन और भी उम्दा, मुझे बहुत पसंद आया।

- गिरिराज जोशी "कविराज"

Dr. Seema Kumar ने कहा…

आप सभी की टिप्प्णियों एवँ उत्साहवर्धन के लिए बहुत - बहुत धन्यवाद ।

- सीमा कुमार

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